25 जून 1975… आधी रात को लोकतंत्र की साँसें थम गईं!”
“एक प्रधानमंत्री, जिसकी कुर्सी खतरे में थी…”
“एक बेटा, जो सत्ता का स्वाद चख रहा था…”
“और एक देश, जो अचानक कैद में बदल गया…”
“प्रेस पर पहरा, बोलने पर बैन, विरोध पर जेल…”
“आपातकाल सिर्फ एक घटना नहीं थी—वो भारत के लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला था!”
25 जून 1975… आधी रात को लोकतंत्र की साँसें थम गईं! एक कलम, जो सच लिखती थी, अब कांपने लगी। एक अखबार, जो सुबह-सुबह सच जगाता था, अब सरकार की इजाजत का मोहताज हो गया। और एक नेता… जिसने देश को चुप्पी की जंजीरों में कैद कर दिया।” लेकिन सवाल यह है — क्या यह कदम लोकतंत्र को बचाने के लिए था ? या फिर सत्ता को बचाने के लिए?
ये बर्ष था 1971 का जब देश में इंद्रा गांधी का एक छत्र राज हुआ करता था,मीडिया उन्हें आयरन लेडी कहा करती थी,
सो कहानी की शुरुआत होती है 1972 में जब इंडिया में जनरल इलेक्शंस होने वाले थे ,लेकिन इंदिरा गांधी को उस वक्त ऐसा लगा कि समय उनके फेवर में है, और इसीलिए ओवर कॉन्फिडेंस के चलते उन्होंने 1972 के जनरल इलेक्शंस को एक साल पहले ही 1971 में करवाने का फैसला कर लिया, उनके इस फैसले से अपोजिशन पार्टी जनसंघ भी काफी शॉक्ड थी और उन्होंने रायबरेली के सीट पर
वहां के सबसे पॉपुलर फेस ,राज नारायण को इंदिरा के अगेंस्ट -कंटेस्ट करवाने के लिए भेज दिया, उस समय जहां पर अपोजिशन ने
इंदिरा हटाओ के नारे लगाए ,वहीं इंदिरा जी ने बड़े ही टैकफुली इन नारों को अपने फेवर में कन्वर्ट कर दिया इंदिरा गांधी ने उस
समय गरीबी हटाओ के नारों से उसे रिप्लेस कर दिया,
जिसके थ्रू उन्होंने लोगों से अपील किया, कि अब फैसला उनके ऊपर है ,इंदिरा को हटाना है या फिर गरीबी को, इस इलेक्शन में इंदिरा को फिर 1,83,000 वोट्स मिले, और राज नारायण को 71499 जिसके बाद राज नारायण ने इंदिरा पर, बैलेट पेपर टपरिंग और करप्ट प्रैक्टिसेस का आरोप लगाया ,और इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील की, इस मामले कोर्ट द्वारा फिर जांच पड़ताल हुई, और कोर्ट ने 12th जून 1975 को अपना फाइनल फैसला सुनाते हुए कहा, कि इंदिरा गांधी वाकई में दोसी हैं ,क्योंकि इन्होंने कैंपेन, स्टेज, लाउडस्पीकर्स जो गवर्नमेंट के होते हैं ,और इलेक्शंस में एक पार्टी अपने पर्सनल फायदे के लिए उसे नहीं यूज कर सकती ,उन्हें भी यूज किया, और आईएएस, आईपीएस जैसे गैजेटेड ऑफिसर्स को भी उन्होंने अपने पार्टी के इलेक्शन एजेंट्स की तरह यूज किया,
इस केस के फाइनल वर्डिक्ट यानी डिसीजन को आने में ही 4 साल लग गए और इन्हीं 4 सालों में पीएम इंदिरा गांधी जी की ही सरकार देश को रूल कर रही थी ,
“साल 1975… देश आज़ाद तो था, लेकिन बेचैन भी…
फिर आता हैं 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट का वो फैसला, जिसने भारतीय राजनीति की ज़मीन हिला दी।”
“प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध करार दिया गया था। आरोप—चुनाव में सत्ता का दुरुपयोग।
फैसला साफ था—इंदिरा गांधी को पद छोड़ना होगा।”
“लेकिन ये कहानी यहां खत्म नहीं होती…
फैसले के खिलाफ इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं। कोर्ट ने कहा—वो प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं,
लेकिन… न संसद में बोल सकती हैं, न वोट डाल सकती हैं।
वो देश की सबसे ताक़तवर महिला, अब एक ‘नाममात्र’ की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं।”
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दिल्ली का दूसरा चेहरा
“अब एक तरफ दिल्ली में सत्ता फिसल रही थी…
तो दूसरी तरफ उसी दिल्ली के रामलीला मैदान में देश के हज़ारों लोग इकट्ठा थे। और मंच पर खड़े थे जेपी—जयप्रकाश नारायण।”
“उन्होंने बस एक लाइन कही—’अब इस देश को टोटल रेवोल्यूशन चाहिए।’
पूरा मैदान जयकारों से गूंज उठा।लेकिन सत्ता के गलियारों में सन्नाटा फैल गया।”
‘टोटल रेवोल्यूशन’ – डर का दूसरा नाम
“जेपी का यह ‘रेवोल्यूशन’ शब्द इतिहास से भरा हुआ था।
रशिया में इसी शब्द ने ज़ारशाही खत्म की थी, चीन में साम्यवाद की नींव रखी थी।
और अब यह शब्द दिल्ली की सत्ता को सीधी चुनौती दे रहा था।”
“इंदिरा गांधी जानती थीं कि सुप्रीम कोर्ट की सीमाएं उन्हें बाँध रही हैं।
वो खुलकर कोई बड़ा एक्शन नहीं ले सकती थीं।
लेकिन जेपी आंदोलन ने उन्हें वो ‘जस्टिफिकेशन’ दे दिया जिसकी उन्हें तलाश थी।
उन्होंने इसे आंतरिक संकट कहा… और उठा लिया सबसे बड़ा कदम।”
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25 जून 1975 की रात: जब लोकतंत्र की हत्या हुयी ,ताना शाही हावी हुयी,
“25 जून की रात… जब देश सो रहा था,
ऑल इंडिया रेडियो पर अचानक एक एलान हुआ—
देश में आपातकाल लागू कर दिया गया है।
कारण बताया गया—आंतरिक गड़बड़ी।
लेकिन हकीकत थी—सत्ता की हिफ़ाज़त।”
और यहीं से शुरू हुआ भारत का सबसे काला अध्याय…
“आपातकाल लागू होते ही—
राजनीतिक विरोधियों को जेल में ठूंस दिया गया।
अखबारों की स्याही सेंसर कर दी गई।
रेडियो और दूरदर्शन पर सिर्फ सरकार की आवाज़ गूंजती थी।
और आम नागरिक? डर और सन्नाटे में जीने को मजबूर हो गया।”
“भारत में लोकतंत्र था… लेकिन सांसें रोककर खड़ा था।
वोट था, लेकिन आवाज़ नहीं।
अधिकार थे, मगर इस्तेमाल नहीं।
और सत्ता? बस एक परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही…”
सवाल उठने लगे-
क्या देश की जनता को ‘चुप रहने का आदेश’ देना तानाशाही नहीं थी ? क्या मीडिया को सेंसर कर देना संविधान की हत्या नहीं थी ?
1975 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है, जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने की हरसंभव कोशिश की गई। इस दौर में केंद्र सरकार की नीतियों से असहमत होने वाले पत्रकारों, संपादकों और प्रकाशनों को या तो चुप करा दिया गया या उन्हें पूरी तरह से हाशिए पर डाल दिया गया। इस लेख में उन तमाम घटनाओं और पात्रों को शामिल किया गया है, जो आपातकाल के दौरान मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा या दमन से जुड़े रहे।
“सूचना या सत्ता?”
“आपातकाल की पूर्व संध्या पर सूचना मंत्री थे इंद्र कुमार गुजराल।
संजय गांधी और इंदिरा गांधी दोनों ने दबाव डाला कि सरकारी मीडिया को उनके हिसाब से चलाया जाए।
लेकिन गुजराल ने साफ मना कर दिया—’यह माध्यम सरकार के नहीं, जनता के हैं।'”
“24 जून को सुप्रीम कोर्ट का फैसला था, लेकिन आकाशवाणी ने उसे ‘घुमा’ कर नहीं दिखाया।
25 जून को रामलीला मैदान की विपक्षी रैली की कवरेज हुई।
बस यहीं से गुजराल के खिलाफ गुस्सा फूट पड़ा।
संजय गांधी ने डांटा, इंदिरा गांधी ने स्क्रिप्ट मांगनी शुरू कर दी… और गुजराल बाहर कर दिए गए।”
“बीबीसी के मार्क टली पर झूठी खबरों का आरोप लगाया गया।
क्या ये आरोप सच थे? या बस सच को दबाने का बहाना?”
“गुजराल ने गिरफ्तारी से इनकार कर दिया।
लेकिन एक गायक ने कांग्रेस कार्यक्रम में गाने से मना किया,
तो रेडियो से उसका संगीत बैन कर दिया गया।
क्या ये अभिव्यक्ति की आज़ादी थी… या सत्ता की सनक?”
“चार एजेंसियों को मिलाकर ‘समाचार’ बनाई गई—
एक ही भाषा, एक ही सोच, एक ही खबर।
फिल्में भी चुप थीं—‘आंधी’ और ‘किस्सा कुर्सी का’ बैन कर दी गईं।
प्रेस काउंसिल भंग हो गई।”
“वो दौर सवालों का नहीं, आदेशों का था।
जो सत्ता से सहमत नहीं था—वो चुप करा दिया गया।
मीडिया मरा नहीं था, लेकिन उसे बोलने की इजाज़त नहीं थी।”
क्या सरकार को इतनी घबराहट थी कि संपादकीय कॉलम तक खाली करवा दिए? क्या खाली कॉलम किसी विरोध से ज़्यादा असरदार होते हैं? गौर किशोर घोष ने सिर मुंडवा लिया और सड़कों पर चल पड़े— क्या यही था उस दौर का सबसे क्रांतिकारी बयान: “जनतंत्र मारा गेलो”? 103 पत्रकारों ने विरोध प्रस्ताव पास किया, लेकिन क्या सरकार को फर्क पड़ा? या फिर कुलदीप नैयर को जेल भेजना ज़रूरी समझा गया ?
आयरन लेडी इंद्रा का एक अनाउंस था -भाइयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है ,इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है, आप सभी गहरे और व्यापक षड्यंत्र से अवगत होंगे जो , इमरजेंसी डिक्लेअ करते ही रातोंरात अपोजिशन लीडर्स को घर से उठा लिया गया- विजिया राजे सिंधिया,जयकाश नारायण ,मुलायम सिंह यादव, राज नारायण मोरारजी देसाई ,चरण सिंह ,जॉर्ज फर्नांडिस अटल बिहारी वाजपेयी जी ,लालकृष्ण आडवाणी अरुण जेटली जैसे नेताओं को रातों-रात जेल में डाल दिया गया और जो लीडर्स पुलिस के डर से कहीं पर छुप गए थे उनके भी घर वालों को परेशान किया जा रहा था ,
“इमरजेंसी: डर, दर्द और दमन का दौर”
“इमरजेंसी के दौरान सिर्फ आज़ादी नहीं छीनी गई, इंसानियत को भी कुचल दिया गया।
नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी की एक किताब बताती है—जेलें भर चुकी थीं,
कैदियों को बिजली के झटके दिए जाते,
बर्फ पर कपड़े उतारकर लिटाया जाता,
सिगरेट और मोमबत्ती से जला दिया जाता।
कई दिनों तक उल्टा लटकाना,
यहां तक कि अपना ही यूरिन पीने पर मजबूर करना—
ये सब भुगत रहे थे वो लोग,
जो न अपराधी थे, न आतंकी—बस विपक्ष के नेता थे या पत्रकार।”
फोर्सफुल नसबंदी: जब आंकड़े इंसानियत से बड़े हो गए
“और फिर आया सबसे काला अध्याय—फोर्सफुल नसबंदी।
1952 से चल रही फैमिली प्लानिंग स्कीम को
इमरजेंसी में एक ‘आंकड़ा पूरा करने की होड़’ बना दिया गया।
लाखों पुरुषों को जबरन नसबंदी के लिए पकड़ा गया।
गरीबों, मजदूरों और गांववालों को डरा-धमका कर
लाइन में खड़ा कर दिया गया—न राशन मिलेगा, न नौकरी अगर नसबंदी नहीं करवाई।
कुछ मामलों में तो पुलिस घरों से उठा ले गई।”
“सोचिए, एक लोकतंत्र में
लोगों के शरीर पर ज़बरदस्ती की जा रही थी—सिर्फ इसलिए कि किसी की सत्ता सुरक्षित रहे।”
“इमरजेंसी: सच क्या था?”
“इमरजेंसी का दौर भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय था।
इंदिरा गांधी ने लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आकर देश को एक तानाशाही शासन में बदल दिया।
जेलों में लोगों को बिजली के झटके दिए गए, उल्टा लटकाया गया, बर्फ पर सुलाया गया।
और वो लोग कोई अपराधी नहीं थे—वो सिर्फ पत्रकार, नेता या विरोध की आवाज़ थे।”
“सबसे भयानक था—फोर्सफुल नसबंदी।
लाखों गरीबों को जबरन ऑपरेशन के लिए ले जाया गया।
बदले में उन्हें राशन, नौकरी या सुरक्षा का लालच और डर दिखाया गया।
ये पॉपुलेशन कंट्रोल नहीं, सत्ता का भय था।”
“जनता का गुस्सा बढ़ता गया।
फिर 1977 में इंदिरा गांधी ने चुनाव का एलान किया।
कांग्रेस हारी और जनता पार्टी ने सरकार बनाई।
पहला काम—42वें संविधान संशोधन को पलटना और 44वां अमेंडमेंट लाना।
अब इमरजेंसी लगाने से पहले राष्ट्रपति की मंजूरी ज़रूरी कर दी गई।”
“पर सबसे बड़ा सवाल आज भी वही है—
क्या इमरजेंसी एक राष्ट्रीय ज़रूरत थी या सिर्फ सत्ता बचाने की चाल?
कुछ लोग मानते हैं कि इंटरनेशनल साज़िशें थीं, CIA तक फंडिंग कर रहा था।
कुछ कहते हैं कि नसबंदी पर वेस्टर्न दबाव था।
और कई थिंकर्स मानते हैं—इंदिरा गांधी ने सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए ये सब किया।”
“आप क्या सोचते हैं? क्या ये देश के लिए था… या सिर्फ एक परिवार के लिए?
कमेंट में ज़रूर बताना।
और ये वीडियो शेयर करो, ताकि लोग जानें कि जब लोकतंत्र पर पहरा बैठता है,
तो उसकी कीमत जनता चुकाती है।”
“मिलते हैं अगले एपिसोड में—जय हिंद!”