पूर्वांचल के डॉन मुख्तार अंसारी की हार्ट अटैक से मौत
45 मुकदद्मे ,7 मुक़द्द्दों में उम्रकैद की सजा
90 के दशक में रेवले ठेकों ने बना दिया पूर्वांचल का डॉन
डॉन के बाद राजनीती और सच्चिदानंद” राय की हत्या,और ब्रजेश सिंह से दुश्मनी
और क्या क्या किया डॉन बनने तक
आए हम आपको बताते हैं सिलसिले बार तरीके से कैसे एक युवा रसूक के चलते बन जाता हैं डॉन ,जानेंगे मुख्तार का :हनुमान गेयर,और इस खबर में जानेंगे “सच्चिदानंद” राय की हत्या-मुख्तार का नाम,और जानेंगे ब्रजेश सिंह बनाम मुख्तार,और जानेंगे कैसे चुनाव में उतरा पूर्वांचल का डॉन मुख्तार अंसारी ,इस खबर को 5 मिनट जरा दयँ से सुनियेगा
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में कई ऐसे नेता हुए जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ी है. चाहे आजादी के पहले का समय रहा हो या बाद का. लेकिन 70 के आखिरी दशक में सड़क और रेलवे के ठेकों की लड़ाई ने इस इलाके की फिजा खराब कर दी. इस इलाके में माफिया पैदा होने लगे. ठेकों की गारंटी पर पहले उन्होंने अपने आकाओं के लिए बंदूकें उठाईं. बाद में खुद राजनीति में उतर गए.
80 के दशक में माहौल बदल रहा था. पिछड़े पूर्वांचल में विकास के पैसे आने लगे थे. लेकिन रेलवे, सड़क, शराब, बालू खनन ही नहीं, टैक्सी स्टैंड तक के ठेके वही ले पाते थे जो बाहुबली होते थे. इलाके में शिक्षा का माहौल था लेकिन यहां से बेरोजगारों की फौज निकल रही थी. रोजगार की तलाश में हताश युवा कब किस माफिया के चंगुल में फंस जाए कोई नहीं जानता था. ऐसे लोग अपने आका के एक इशारे पर मरने-मारने को तैयार थे. कट्टा रखना शान समझा जाता था. कई लोग साइकिल पर बंदूकें लेकर चला करते थे.
पूर्वांचल का ही एक जिला है गाजीपुर. कहा जाता है कि यहां अफीम, अपराधी और अफसर साथ-साथ पैदा होते हैं. यह भूमिहार बहुल इलाका है, कुछ लोग इसे ‘भूमिहारों का वेटिकन’ भी कहते हैं. बनारस यहां से करीब है और कहा जाता है कि गाजीपुर वालों को बनारस में ही सबकुछ मिलता है, केवल गुंडई छोड़कर. इसकी ट्रेनिंग यहीं मिल जाती है. पुराने लोगों को हत्याओं की कहानी जुबानी याद रहती हैं. चाय-पान की दुकानों पर चर्चा राजनीति से शुरू होती है लेकिन खत्म अपराध की कहानी पर ही होती है.
गाजीपुर के ही युसुफपुर-मुहम्मदाबाद में 1963 में मुख्तार अंसारी का जन्म हुआ. उनके दादा आजादी के आंदोलन में भाग ले चुके थे और परिवार इलाके के इज्जतदारों में गिना जाता था. लोग अपनी समस्याएं लेकर ‘फाटक’ पहुंचते थे. मुहम्मदाबाद स्थित मुख्तार का घर आज भी फाटक के नाम से जाना जाता है. कुछ लोग इसको ‘बड़का फाटक’ भी बोलते हैं. मुख्तार मजबूत कद-काठी और दबंग स्वभाव के थे. उन्हें करीब से जानने वाले कहते हैं कि बचपन से ही वह मनबढ़ थे. वह जो कहें वही हो यह उनके स्वभाव में था. वह अपनी क्लास में सबसे लंबे थे. क्रिकेट-वॉलीबॉल से लेकर हॉकी में रुचि रखते थे. निशानेबाजी उनका शौक रहा.
मुख्तार का हनुमान गेयर
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार इंटर की पढ़ाई के बाद मुख्तार ने गाजीपुर के पीजी कॉलेज में दाखिला लिया. वहां उनकी दोस्ती हुई साधू सिंह से. साधू सिंह और मकनू सिंह दोनों सगे भाई थे. दोनों गोरखपुर के बड़े ब्राह्मण नेता के लिए काम करते थे. जिनकी अदावत ठाकुर माफिया से थी. ब्राह्मण और ठाकुर माफिया रेलवे के ठेके के लिए एक-दूसरे से भिड़ते रहते थे. उस दौरान पूर्वांचल के गोरखपुर और आसपास के जिलों में आए दिन गोलियां चलती थीं. साधू सिंह की संगत से मुख्तार को मंजिल दिखने लगी. उन्हें लगने लगा कि अगर लंबा रास्ता तय करना है तो ‘बाहुबली’ बनना पड़ेगा. चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े. मुख्तार का तकिया कलाम बना ‘हनुमान गेयर’. किसी भी तरह का काम हो अगर मुख्तार को पसंद आ गया तो वह कहते रहे हैं कि हनुमान गेयर लगावत हईं,
सच्चिदानंद राय की हत्या-मुख्तार का नाम
80-90 के दशक में गाजीपुर जिले की एक और खासियत थी. राज्य हाइवे से सरकारी बसें इस जिले को पार करके चला करती थीं. जैसे बनारस-गाजीपुर-गोरखपुर. बलिया-गाजीपुर-बनारस लेकिन किसी सरकार में इतना दम नहीं था कि वह गाजीपुर के इंटरनल इलाकों से सरकारी बसें मुख्यालय तक चला ले. इन सारे रूटों पर माफिया का कब्जा था जो अपने-अपने बेड़े की बसें चलवाते थे. इसे जनता का भी समर्थन मिलता था, क्योंकि बसों की टाइमिंग फिक्स थी, मुहम्मदाबाद से गाजीपुर, बनारस के लिए बस कितने बजे चलेगी, कब पहुंचेगी, कहां-कहां कब रुकेगी यह तय था. लोग बताते हैं कि इनकी लोकप्रियता इतनी थी कि लोग इससे घड़ी मिलाने की बात करते थे. सच्चिदानंद राय भी दबंग किस्म के थे. उनसे जुड़े लोगों की बसें मुहम्मदाबाद से चलती थीं. बताया जाता है कि मुख्तार से जुड़े लोग भी इस कारोबार में थे. किसकी बस कब निकलेगी इसको लेकर विवाद हो गया. सच्चिदानंद राय वहां मौजूद नहीं थे. मुख्तार भारी पड़ गए. सच्चिदानंद को यह नागवार गुजरा. कहा जाता है कि फनफनाए सच्चिदानंद मुख्तार के घर ‘फाटक’ तक चढ़ गए. मुख्तार ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया. कुछ दिन बाद ही सच्चिदानंद राय की हत्या हो गई. नाम मुख्तार का आया लेकिन कुछ साबित नहीं हो सका. इससे पहले शूटर माला गुरु की हत्या में भी नाम लिया गया था लेकिन सच्चिदानंद की कहानी बड़ी हो गई. एक-एक कर ऐसी कहानियां जुड़ती गईं और मुख्तार माफिया की नगरी में ‘बड़े’ होते गए.
ब्रजेश सिंह बनाम मुख्तार
मुख्तार और ब्रजेश सिंह के रास्ते पहले अलग-अलग थे. दोनों की कोई निजी दुश्मनी नहीं थी. लेकिन साधू सिंह मुख्तार के संघी थे, उस इलाके में खास दोस्त को संघी कहते हैं. साधू सिंह के परिवार की दुश्मनी एक जमीन के टुकड़े को लेकर ब्रजेश सिंह के परिवार से हो गई. इस लड़ाई में साधू सिंह के गैंग के पांचू सिंह ने ब्रजेश सिंह के पिता वीरेंद्र सिंह की हत्या कर दी. साधू सिंह की संगत की वजह से ब्रजेश सिंह मुख्तार को दुश्मन मानने लगे. अदावत बढ़ती गई. मुख्तार ठेका-पट्टी में तेजी से अपना पैर फैलाते जा रहे थे. उधर ब्रजेश बदले की आग में जल रहे थे. आजमगढ़ के तरयां में एक ही दिन 7 लोगों की हत्या कर दी गई. इसमें ब्रजेश सिंह का नाम आया. वह ठाकुरों की आपस की लड़ाई थी. लेकिन इस हत्याकांड के बाद यह तय हो गया कि पूर्वांचल में दो ही लोगों की दबंगई चलेगी. एक गुट मुख्तार के साथ जुड़ गया तो दूसरे ने ब्रजेश सिंह की शरण ली.
आइये जानते हैं कैसे परिवार राजनीती में आया
मुख्तार का परिवार कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा था. उनके पिता सुभानुल्लाह अंसारी भी राजनीति में दखल रखते थे. मुख्तार के बड़े भाई अफजाल ने उसे आगे बढ़ाया और 1985 में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी से विधायक चुने गए. सीट थी गाजीपुर की मुहम्मदाबाद. कांग्रेस के दौर में भाई को चुनाव जिताने में मुख्तार का बड़ा हाथ माना गया. इसके बाद मुख्तार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिलोरे मारने लगी. मुख्तार अब अपनी छवि चमकाने में लग गए. गाजीपुर में उस समय हैंडलूम का काम भी प्रमुखता से होता था. लेकिन बिजली की समस्या थी. मुख्तार ने इसे मुद्दा बना लिया. उन्होंने अफसरों पर दबाव बनाया कि उन्हें तय करना होगा कि इलाके में बिजली कितने घंटे आएगी. इसका असर दिखने लगा. लोगों को लगने लगा कि मुख्तार उनके लिए लड़ सकते हैं. ‘फाटक’ पहुंचने वालों की संख्या बढ़ने लगी.
जब पहली बार सजा विधायकी का ताज
मुख्तार गाजीपुर में ही किसी सीट से विधायकी का चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन बात बैठ नहीं रही थी. उन्होंने बीएसपी का दामन थाम लिया. मायावती ने उन्हें 1996 में मऊ से मैदान में उतरने का आदेश दिया. मऊ की सीट मुस्लिम बहुल है और यह मुख्तार के लिए वरदान साबित हुई. मुख्तार 96 में पहली बार बीएसपी से विधायक चुने गए. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. तब से 2017 तक वे लगातार यहां से चुने जाते हैं.
मुख्तार को एसयूवी का शौक रहा. उनके एसयूवी के बेड़े में कई गाड़ियां होती थीं. उन गाड़ियों की सीरीज कोई भी हो लेकिन आखिरी नंबर 786 हुआ करता था. कई लोग तो यह भी बताते हैं कि मुख्तार किस गाड़ी में बैठे हैं इसका अंदाजा लगाना मुश्किल होता था. मुख्तार और उनके लोगों को करीब से जानने वाले बताते हैं कि मुख्तार की गाड़ी या उनके काफिले की गाड़ी का ड्राइवर बनना आसान नहीं था. ड्राइवर वही बन सकता था जो दुश्मनों को दूर-दूर से पहचानता हो और किसी भी रास्ते से गाड़ी निकालने में एक्सपर्ट हो.
2002 में मुख्तार मऊ से विधायक चुन लिए गए. उन्होंने खुद पर हुए हमले से सहानुभूति बटोरने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. तब मोबाइल और वीडियो रिकॉर्ड करने का जमाना नहीं था. वह छोटी मोटी सभाओं में कहा करते कि भूमिहारों और सवर्णों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है. हमारा परिवार तो इन्हीं के बल पर हमेशा चुनाव जीतता रहा है.उस दौरान कृष्णानंद राय की बुलेट प्रूफ गाड़ी हुआ करती थी और मुख्तार को पता था की उस गाड़ी के साधारण रायफल से भेदना असभव हैं ,उसी को देखते हुए lmg खरीदने का प्लान बनाया , जिसमें मुख्तार पर केस दर्ज हुआ ,लेकिन पोलिटिकल प्रेस्सेर के चलते गिरतारी नहीं हो सकी